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मेरी पहचान

मनोज सिंह

प्रकाशक : अरुणोदय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7765
आईएसबीएन :81-88473-74-X

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...‘तिमंजिला मकान वाले पंडित नहीं रहे’, शहर के अधिकांश बुजुर्ग अब इसी नाम से पहचानते थे...

Meri Pahchan - by Manoj Singh

...‘तिमंजिला मकान वाले पंडित नहीं रहे’, शहर के अधिकांश बुजुर्ग अब इसी नाम से पहचानते थे। हमारा, कस्बे में पहला तीन मंजिला मकान था। अब तो कई बन गये। कुछ तो चार फ्लोर तक चले गये। कुरैशी ने सब से पहले बनाया था। तब से बड़ा लड़का नाराज रहता था। हमारी शान और पहचान खत्म हुयी थी। कुरैशी की बढ़ती जा रही थी। सफेद छोटा अलीगढ़ी पायजामा, चेहरे पर विशिष्ट पहचान कराती दाढ़ी और सर पर सफेद गोल टोपी। अलग से दिखता था कि मुसलमान है। तभी से बड़े लड़के ने भी तिलक लगाना शुरू कर दिया था। लंबा तिलक लगाकर वो, एक हिन्दू पार्टी में तिलकधारी के नाम में मशहूर था। कस्बे के नेता जब ‘तिलकधारी के पिता’ के नाम से मुझे पुकारते तो बड़ी खुशी होती थी। तिलकधारी के पिता का देहांत, मतलब नेताजी के घरशोक, मोहल्ले में भी भीड़ होनी चाहिए। इज्जत वाली बात थी। फिर पोता भी तो बड़ा ठेकेदार बन चुका था, मुन्नाभाई। दादा को पोते से तो वैसे भी प्यार कुछ ज्यादा ही होता है। ‘मुन्नाभाई के दादा’, इस संबोधन को सुनकर मुझे गर्व होता था। मैं चालीस-बयालीस और तिलकधारी बीस-इक्कीस का होगा जब मुन्ना हो गया था। अब तो वो खुद भी पैंतालीस के ऊपर का होगा और स्वयं दादा भी बन चुका है। इसी की बहू ने तो पहली लड़की के बाद बच्चे के लिए मना किया हुआ है। दोनों पति-पत्नी कमाते हैं और पास के शहर में रहते हैं। सुनते कहाँ थे। कितना समझाया था कि मुझे परपोते के लड़के का मुँह दिखा दो। दोनों सुनकर मुस्कुरा देते थे। बस !...

पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को अमूमन इस नयेपन की संपूर्ण प्रक्रिया से दूर रखने की कोशिश करती है। साहित्य-कला में ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में। ये अनुभवी वरिष्ठ पीढ़ी अपनी अनगिनत पराजय को मस्तिष्क में कहीं छुपाकर पालती-पोसती है और फिर तमाम उम्र तरह-तरह से परोसती है। अपने वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए अनुशासन के नाम पर आने वाले कल को सीमाओं में बांधने का प्रयास करती है। अपने डर को अनुभव की चाशनी में डुबोकर एक स्वतंत्र पीढ़ी के नैसर्गिक विकास पर रोक लगाती है। बुजुर्ग सहयोग नहीं करते, सलाह-मशविरा नहीं देते, मार्गदर्शन नहीं करते, स्वयं नेतृत्व करने लग पड़ते हैं। सुनना पसंद नहीं करते, न मानने पर पूरा संसार सिर पर उठा लेते हैं। आंसुओं में सारे संस्कारों को डुबो दिया जाता है। भावनाओं में सब कुछ भिगो दिया जाता है। संस्कृति व सभ्यता पर दोषारोपण शुरू हो जाता है। पुरानी पीढ़ी अधिकारों की बात तो करती है मगर कर्तव्य से दूर ही रहती है। बचती है। वो तो अपनी महत्वाकांक्षाओं के साथ जीती है। और दूसरों के साथ खेलती है। अपनी चूकी हुई बातों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करती है। पकी उम्र में भी अपने सपने बोये जाते हैं। अपने विचार-दृष्टिकोण यहां तक की पसंद-नापसंद को भी थोपा जाता है। तर्क से, प्यार से, रिश्तों के बंधन से। कभी-कभी धर्म के नाम पर। कहीं-कहीं बलपूर्वक भी। किस्से कहानी और इतिहास की दुहाई देकर। और यहीं रुक जाता है नयी पीढ़ी का विकासक्रम, उनका कल्पनाओं में उड़ने का प्रयास। नये और पुराने के बीच यह अंतर्द्वंद्व जारी है और सदा रहेगा। अगर हम इस से बच सकें तो अगली पीढ़ी को एक स्वतंत्र जीवन जीने के लिए वातावरण दे सकते हैं। जहां वो नये आकाश को छूने के लिए उड़ सकेंगें।

—भूमिका से

मनोज सिंह


जन्म : 1 सितंबर, 1964, आगरा (उ. प्र.)
शिक्षाः बी.ई. इलेक्ट्रॉनिक्स, एम.बी.ए. (मानव संसाधन विकास)

प्रकाशित पुस्तकें : ‘चन्द्रिकोत्सव’ (खण्ड काव्य)–चाँदनी रात का कौमुदी महोत्सव; ‘बन्धन’ (उपन्यास)–मानसिक रोगी के परिवार की दर्दभरी कहानी। स्किइजोफ्रीनिया एवं अन्य मेण्टल डिसॉडर का विस्तारपूर्वक पारिवारिक, सामाजिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि के विश्लेषण ‘व्यक्तित्व का प्रभाव’ (लेखों का संकलन)–समसामायिक विषयों पर लिखे गए साप्ताहिक कॉलम में से चुने गए पचास लेखों का संकलन; ‘कशमकश’ (उपन्यास)–नारी के समाज में विकास की कहानी एवं उसका अन्तर्द्वंद्व। तीन पीढ़ियों का चित्रण। सभी वर्ग, आयु, क्षेत्र व आधुनिक समाज की तकरीबन हरेक महिला के जीवन को छूने का प्रयास।

अन्य गतिविधियाँ : कई समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में लेखों का नियमित प्रकाशन; पत्रिकाओं का संपादन; www. manojsingh.com एवं कई अन्य हिंदी बेबसाइट पर नियमित साप्ताहिक कॉलम का लेखन; विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा; देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेखन; विभिन्न विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट कोर्स एवं मास-कम्युनिकेशन से संबंधित शिक्षण संस्थानों में विशेषज्ञ व्याख्यान के लिए आमंत्रित।

उपलब्धियाँ : ‘चन्द्रिकोत्सव’ पर आधारित नृत्यनाटिका का प्रसारण दूरदर्शन पर; प्रकाशित पुस्तकों पर एम.फिल.; दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं एफ.एम. रेडियो पर कई चर्चाओं में सम्मिलित; भारत सरकार राजभाषा विभाग गृह मन्त्रालय की पुस्तकों की अनुमोदित सूची में पुस्तकें शामिल; राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित; उपन्यास एवं लेखों का कई भाषाओं में अनुवाद प्रकाशनार्थ; ‘बंधन’ उपन्यास का प्रकाशन वेबसाइट पर, प्रतिदिन एक अध्याय (सीरियल के रूप में)

सम्प्रति : उपमहानिदेशक विजीलेंस एवं टेलीकॉम मॉनिटरिंग, (पंजाब व चंडीगढ़) दूरसंचार मंत्रालय, भारत सरकार
सम्पर्क : 425/3, सेक्टर-30ए, चण्डीगढ़।

अनुक्रम


  • अनचाहे रिश्तों की चाहत
  • बहते पानी का झरना
  • बिना टिकट
  • चंद्रगुप्त, चालाक बनो
  • एक वोट की कीमत
  • मेरी पहचान
  • मुझे तुम्हारी छत चाहिए
  • ऑपरेशन किश्तों में
  • पप्पू से मनोज और फिर पी
  • रंगमंच का डायरेक्टर
  • सब्र

  • अनचाहे रिश्तों की चाहत


    आज सुबह जैकी ने खाना खाने से इनकार कर दिया था। अनिल ने उसे मनाने की बहुत कोशिश की थी। साफ-साफ दिखाई दे रहा था कि रूठ रहा है। कल सक्सेना परिवार फिल्म देखने के बाद, लम्बी ड्राइव पर चला गया था। रात वापस आने में थोड़ा वक्त लगने लगा तो बच्चों से अधिक सुनीता को चिन्ता हुई थी। जबकि बहुत दिनों बाद घर से निकलना हुआ था। कुछ दिनों से सारा परिवार, एक साथ घूमने-फिरने कम ही जा पाता था। परिवार क्या...कुल चार सदस्य।...फिर भी माँ को अधिक परेशान देख कर आकाश और प्रतीक्षा की खुशी का ठिकाना नहीं था। उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हो रही थी कि आखिरकार माँ को भी जैकी से प्यार हो ही गया। घर का पाँचवाँ सदस्य...अनचाहा...मगर बच्चों का प्यारा। शायद दादा-दादी की जगह लेने की कोशिश में...कुछ-कुछ सफल और बहुत हद तक उनसे बेहतर हालत में।

    यूँ तो जैकी कई बार घर पर अकेला रह चुका था। परन्तु अब तक कुछ समय के लिए ही ऐसा होता था। इतने लम्बे समय के लिए, यह पहली बार हुआ था। अनिल को देर रात आते ही महसूस हो चुका था कि जैकी इसी कारण से नाराज़ है। वैसे तो जब से इस घर में आया है, अनिल सक्सेना का पूरा परिवार उसे तकरीबन हर जगह साथ ही ले जाने की कोशिश करता है। मगर इनसानों की इस दुनिया में कुछ स्थान ऐसे भी हैं, जहाँ मनुष्य ने अन्य सभी जीवित प्राणियों के लिए प्रवेश वर्जित कर रखा है। कई जगह तो उसने अपने ही लोगों को भी घुसने से मना किया हुआ है तो फिर जानवरों की क्या बात की जाये। अपनी बसायी दुनिया में उसके लिए मैं, या बहुत अधिक हुआ तो मेरे, इसके आगे अन्य का कोई स्थान नहीं। बस मेरे की परिभाषा बदलती रहती है, परिधि और उसकी सीमाएँ परिवर्तित होती रहती हैं।

    पिक्चर हॉल में, रेस्टोरेंट में कुत्ते एवं अन्य पालतू जानवर नहीं जा सकते। व्यावहारिक एवं उपयोगी नहीं है, इसीलिये सम्भव भी नहीं। व्यावहारिकता व उपयोगिता सिर्फ मानव के शब्दकोश में ही उपस्थित हैं, प्रकृति के आचरण में इनका कोई अस्तित्व नहीं। आदमी की दुनिया में जानवरों के लिए और भी मुश्किलें हैं जो सभ्य समाज की सोच के साथ-साथ विकसित होती चली गयीं। घर में पालतू जानवर हो और अगर कहीं दूर जाना पड़े तो बड़ी मुश्किल होती है। कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जाना तो असम्भव है। कोई न कोई पक्का इन्तज़ाम करना पड़ता है। यही हाल घर में बुजुर्ग के रहने पर भी होता है। कपूत की तो बात ही क्या करना, समझदार सपूत भी हर जगह उन्हें ले जाना नहीं चाहते, और वे घर पर अकेले रह नहीं सकते...अर्थात, परेशानी ही परेशानी। पहले तो संयुक्त परिवार होता था। घर के दरवाजे बन्द ही नहीं होते थे। हर रात दीपक जलता था। अब तो घर का मुखिया भी अगर बीमार हो जाये तो स्वयं गाड़ी चला कर अस्पताल जाना पड़ता है। हम दो हमारे एक में कौन किसका ध्यान रखे, बड़ी मुश्किल होती है। फिर भी, बुजुर्ग तो एक बार मन मार कर अकेले रह सकते हैं मगर जानवर के लिए तो सम्भव ही नहीं। कुछ बड़े शहरों ने इसका इलाज ढूँढ़ लिया है। होटल या वृद्धाश्रम की तरह पालतू जानवरों के लिए भी डॉग हाउस और पैट हॉस्टल बना दिये गये हैं जहां इन्हें कुछ दिनों के लिए भेज दिया जाता है। वैसे छोटे घरेलू जानवरों के साथ कार में सफर किया जा सकता है...फैशन में भी है। मगर बसों में, ट्रेन और हवाई जहाज में इनको साथ नहीं ले जा सकते। फिर जिनके निजी प्लेन हैं वे कुत्ते-बिल्ली ही नहीं, नौकरी को भी साथ ले जा सकते हैं। हाँ, जो अपने पालतू प्रिय जानवरों को ट्रेन में बुक करा कर ले जाते हैं, बाद में पछताते हैं। दुलारे पशु की हालत इतनी ज्यादा खराब हो जाती है कि बेचारे कई बार मरने की स्थिति तक पहुँच जाते हैं।

    अनिल और सुनीता ने अपने दोनों बच्चों के साथ, जैकी को पालने से पहले इस मुद्दे पर खुल कर, कई बार चर्चा की थी। उन्हें ये समझाने की कोशिश की गई थी कि इससे सारा परिवार एक अनचाहे बन्धन की जकड़न में फंस जायेगा। इसके कारण सभी की स्वतन्त्रता छिन जाएगी। यह एक बच्चे को पालने की तरह महत्त्वपूर्ण एवं ज़िम्मेदारी वाला काम है। आप इसके घर आने के बाद बेफिक्र हो कर घूम-फिर नहीं सकते। सुनीता और अनिल को याद था, मम्मी-पापा जब तक जिंदा थे कितनी परेशानी होती थी। फिर बुजुर्ग भी तो बच्चों की तरह ही करते हैं, मगर हम उन्हें बच्चे तो मान नहीं सकते। हर युग में, तत्कालीन युवा पीढ़ी स्वतन्त्रता चाहती है और पुराने बुजुर्ग पारिवारिक सान्निध्य। अनिल और सुनीता दोनों खुलापन, मस्ती...जीवन में स्पेस चाहते थे। वैसे समझदार थे...सबकी स्वतन्त्रता के हकदार...। मगर कुछ दिनों के अन्तराल में ही दोनों बुजुर्ग पूर्णतः स्वतन्त्र हो गये थे...। अनिल और सुनीता को दुःख तो हुआ था...मगर जीवन को आगे बढ़ना ही था। फिर दोनों बच्चों को मुश्किल से मिली इस अमूल्य स्वतन्त्रता के बारे में खुल कर बताना अर्थात स्वयं के भविष्य को भी खराब करना। बहुत समझाया था...दूसरी तरह से...स्वतन्त्रता की अहमियत बतायी गयी थी। मगर उनकी जिद के आगे दोनों को अन्त में झुकना पड़ा था। और समझौता करते हुए जैकी को घर लाने की इजाजत देनी पड़ी थी। वे बच्चों को मना करके, माँडर्न पेरेंट्स कहलाने के मोह से वंचित नहीं होना चाहते थे।

    कुत्तों का जीवनचक्र छोटा होता है। इंसान के मुकाबले बहुत कम। शायद इसीलिए कुत्ते छोटी उम्र में ही अपना शारीरिक विस्तार और मानसिक विकास कर लेते हैं। वे साल डेढ़ साल में ही अपना पूरा आकार ले लेते हैं। सुनीता बचपन से ही कुत्तों से डरती थी और यही कारण था जो जैकी से कुछ ज्यादा ही दूर रहती। वैसे भी उसे किसी भी पशु को घर में पालने के विचार से बहुत ज्यादा नफ़रत थी। परन्तु बच्चों के प्रेम में, उसे अपने आदर्शों को छोड़ कर, वक्त से समझौता करना पड़ा था। फिर भी उसने डर के कारण जैकी को आज तक स्पर्श नहीं किया था। हाँ, बच्चों की खातिर, उनकी खुशी के लिए, जैकी की बहुत छोटी उम्र में, उसके ऊपर हाथ रख कर फोटो ज़रूर खिंचवाई थी।...मगर इन आठ दस महीनों में, जैकी के लिए खाना बनाते हुए, मन-ही-मन में कैसे प्रेम जाग उठा, पता ही नहीं चला। सच ही कहा जाता है, साथ रहते-रहते, धीरे-धीरे अपनापन हो ही जाता है। जीवित क्या निर्जीव घर, स्थान, सामान, शहर से भी लगाव हो जाता है। मानुषिक प्रवृत्ति है। परन्तु कुछ मानवीय रिश्तों में ऐसा कभी नहीं हो पाता। पता नहीं क्यूं ? शायद...कभी पूर्वाग्रह होते हैं, कभी ईर्ष्या, कभी पारिवारिक संबंधों की जटिलता और कभी कुछ और। हाँ, अगर मानव द्वारा निर्मित मानसिक विकार न हो तो सामन्यतः प्रेम सुनिश्चित है। और जाने-अनजाने जैकी और सुनीता के बीच एक समझ विकसित हो चुकी थी। नज़दीक से गुजरने पर अपनी पूँछ हिलाना और थोड़ा पास आने पर कानों को पीछे कर लेना...एक मूक, मनुष्य की भाषा न बोल सकने वाले जानवर के लिए, प्रेम को प्रदर्शित करने का अद्भुत व अचूक तरीका। दूर से सुनीता को देखते ही धीमी मगर विशिष्ट आवाज को उत्पन्न करना...उसके अपनेपन के प्रदर्शन को समझा जा सकता था। खाना देने की वजह से, उसके लिए सुनीता की एक विशेष पहचान थी और उसके व्यवहार में समर्पण को महसूस किया जा सकता था।

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